तिब्बत से निकल जाना चाहिए, सिर्फ़ 100 घंटे में ऐसा क्यों लगा?


 


समय के साथ एक अलग तरह का गणित काम करता है. हम जितनी कम चीज़ें याद रखते हैं हमारे अंदर उसकी गूंज के लिए उतनी ज़्यादा जगह होती है.


एक छोटी यात्रा जापानी टी हाउस के ख़ाली कमरे की तरह हो सकती है. यदि वहां कागज़ के रोल के सिवा कुछ भी नहीं है तो वो कागज़ का रोल ही ब्रह्मांड बन जाता है.


मैंने महसूस किया है कि बाहरी यात्रा को छोटी रखकर आंतरिक यात्रा को जीवन भर के लिए जारी रखा जा सकता है.


सितंबर 1985 में जब चीनी शहर चेंगदू से उड़ा मेरा विमान तिब्बत की राजधानी ल्हासा की सुनसान हवाई पट्टी पर उतर रहा था तब मैं ऐसा कुछ भी सोच-विचार नहीं कर रहा था.


मैं 20 साल का नौजवान था और मिडटाउन मैनहट्टन में 25वीं मंजिल के अपने दफ्तर से सीधे यहां चला आया था.


वहां मैं टाइम मैगज़ीन के लिए वैश्विक मामलों पर लेख लिख रहा था. मैंने 6 महीने की छुट्टी ली थी.


चीन पहुंचने के तुरंत बाद मुझे पता चला कि तिब्बत को अब विदेशियों के लिए खोल दिया गया है. ऐसा पहली बार हुआ था.


तिब्बत की यात्रा


अब जबकि चीन सरकार ने तिब्बत को विदेशी सैलानियों के लिए खोल दिया था, मैं वहां जाने से ख़ुद को नहीं रोक पाया.


मैं बाहर निकला तो हवा पतली थी और आसमान असाधारण रूप से नीला था. उड़ान से आए कुछ अन्य विदेशी घुमक्कड़ लग रहे थे. कुछ वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने आने का मक़सद बताने से मना कर दिया.


हमें एक खटारा बस की ओर ले जाया गया. ज़ल्द ही सड़कों और नदियों के ऊपर से हिचकोले खाता ल्हासा का हमारा सफ़र शुरू हो गया.


सड़कों के किनारे सभ्यता के निशान नहीं के बराबर थे. गुफाओं के आगे बस छोटी-छोटी मूर्तियां थीं और पत्थरों पर बुद्ध को चमकदार रंगों से पेंट किया गया था.


हम ऐसे तीर्थयात्रियों के सामने से गुजरते थे जो सैकड़ों दिनों की तीर्थयात्रा से थके दिखते थे. बे बुद्ध की मूर्तियों के आगे हाथ जोड़ते और दंडवत होकर प्रणाम करते थे.


आख़िरकार हम एक टूटे-फूटे अहाते में पहुंचे तब पता चला कि जिसे 'सिटी ऑफ़ द सन' कहा जाता है, वह दरअसल बारखोर बाज़ार के इर्द-गिर्द बसा छोटा सा शहर है.


इस शहर में सफ़ेद चूने से पुते हुए घर थे. नीले आसमान के नीचे हर घर के आगे फूलों की क्यारियां थीं और छतों पर प्रार्थना के झंडे लगे थे.


मुझे लगता था कि मैं तिब्बत के बारे कुछ-कुछ जानता हूं. एक बार मैं 16 सहयोगियों को न्यूयॉर्क के थर्ड एवेन्यू में तिब्बती रेस्तरां की रसोई तक ले गया था. मैं उनको हिमालय की हक़ीक़त से रूबरू कराना चाहता था.


लेकिन वहां मैं जो देख रहा था उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जैसा एलेक्जांड्रा डेविड-नील की किताब 'मैजिक एंड मिस्ट्री इन तिब्बत' में लिखा गया है.


बौद्ध आस्था का शहर


जोखांग मंदिर के सामने मुख्य चौराहे पर लोग चक्कर लगाते हुए 'दलाई लामा दलाई लामा' बुदबुदा रहे थे. शायद उन्हें उम्मीद होगी कोई विदेशी उनके निर्वासित नेता की प्रतिबंधित तस्वीर उनके सामने रख देगा.


सादी वर्दी में पुलिस वाले पूरे प्लाज़ा में यहां-वहां मंडरा रहे थे. हरी टोपी वाली खानाबदोश औरतें हर जगह दिख रही थीं.


बड़े खम्पा योद्धा अपने लंबे बालों में लाल धागा बांधे हुए थे. बैंगनी गाल वाले बच्चे उनके साथ मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे.


चलते-चलते वे प्रार्थनाचक्र घूमा रहे थे. ढहती इमारतों की मरम्मत कर रहे मज़दूर काम करते हुए लोकगीत गा रहे थे.


मैंने इस शहर से दूर एक नये होटल के बारे में पढ़ा था. मैं अपने से बड़े सूटकेस को खींचते हुए उधर की ओर चल दिया.


जब मैं वहां पहुंचा तो वह होटल कम अस्पताल ज़्यादा लग रहा था. वहां के कमरे ख़ाली थे और हर बेड के पास एक ऑक्सीजन टैंक रखा हुआ था.


मैं मुड़ा और वापस चलने लगा. किसी ने भी मुझे ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी के बारे में नहीं बताया था. याक के चरवाहों ने चिल्लाते हुए मुझे कुछ कहा जिसे मैं समझ नहीं पाया.


सड़क किनारे की दुकानों में कैसेट पर चरवाहों के गीत बज रहे थे. देहाती संगीत और एकल आवाज़ में वे कर्कश लग रहे थे. तिब्बत इतना अनदेखा-अनजाना था कि विदेशी उसके बारे में पहले से कुछ नहीं जानते थे.


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