‘एनजीओ को निशाना बनाने के लिए एफसीआरए लाया गया, तो पीएम केयर्स को लेकर पारदर्शिता क्यों नहीं’


हिं.दै.आज का मतदाता कई ग़ैर सरकारी संगठनों और कार्यकर्ताओं का मानना है कि नए एफसीआरए संशोधनों के कारण उनके काम में बाधा आएगी और कई लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है. इस विधेयक के प्रावधानों से छोटे एनजीओ के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा.


नई दिल्ली: इस हफ्ते संसद से पास हुए एफसीआरए यानी विदेशी अंशदान (विनियमन) संशोधन विधेयक, 2020 से छोटे से लेकर बड़े सभी गैर सरकारी संगठन चिंतित हो गए हैं.


उनका मानना है कि यह कानून न केवल लोगों के दिमाग में उनकी खराब छवि प्रदर्शित करता है, बल्कि बड़े संगठनों के लिए काम करने के खर्चों पर कठोर शर्तें लगाकर और उनसे छोटे संगठनों के लिए धन के हस्तांतरण को रोककर उनके अस्तित्व को भी खतरे में डालता है.


इस विधेयक में पांच महत्वपूर्ण प्रावधान हैं:



  • यह व्यक्तियों, संघों और कंपनियों द्वारा विदेशी फंडिंग की स्वीकृति और उपयोग को नियंत्रित करता है.



  • यह विदेशी फंडिंग को किसी अन्य व्यक्ति को ट्रांसफर करने से रोकता है.



  • यह प्रशासनिक व्यय के लिए उपयोग करने योग्य विदेशी योगदान की सीमा को 50 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर देता है.



  • यह वर्तमान में स्वीकृत 180 दिनों से अलग 180 दिनों की अतिरिक्त अवधि के लिए एफसीआरए प्रमाण-पत्र रद्द करने का अधिकार देता है.



  • हर छह महीने में लाइसेंस का नवीनीकरण होगा, बशर्ते आवेदक फर्जी न हो, सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का दोषी न हो और फंड की हेरा-फेरी का दोषी न हो.


गैर-सरकारी संगठनों को लेकर अविश्वास का माहौल तैयार किया जा रहा


इस मुद्दे पर एक वेबिनार में बोलते हुए पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा ने कहा कि बिल ने गैर-सरकारी संगठनों को लेकर अविश्वास का माहौल तैयार किया गया है.


उन्होंने कहा, ‘यह बिल एनजीओ के लिए प्रतिबद्ध और उनकी देखभाल करने वाले नागरिक समाजों को आहत करेगा, क्योंकि यह लोगों के दिमाग में एनजीओ की गलत छवि पेश करता है. हम गैर-लाभकारी क्षेत्र का हिस्सा हैं और पैसे के बजाय लोगों के प्रति सहानुभूति हमें यहां लाती है.’


मुतरेजा ने सवाल किया, ‘सरकार एनजीओ से क्यों डर रही है? क्या यह इसलिए है क्योंकि हमारे पास आवाज है, हम बोलते हैं, हम सबसे ज्यादा हाशिये के मुद्दों को उठाते हैं, जिनके बारे में सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है?’


उन्होंने कहा कि नियमों का पालन न करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को निशाना बनाने के बजाय सभी गैर-सरकारी संगठनों को एक ही चश्मे से देखा जा रहा है.


उन्होंने कहा, ‘अतीत में फंड के उपयोग जैसे मुद्दों का सामना करने वाले कई संगठनों के खिलाफ आपराधिक जांच की गई है. इसके लिए सशक्त कानून हैं.’


चुनावी बॉन्ड और पीएम केयर्स के लिए फंड को लेकर पारदर्शिता कहां है?


विधेयक पर चर्चा के दौरान सामाजिक प्रभाव और परोपकार के लिए केंद्र की निदेशक इंग्रिड श्रीनाथ ने कहा कि फंड का खुलासा न करने, सदस्यों की पहचान छिपाने जैसे एकतरफा आरोप लगाए गए, लेकिन कोई सबूत पेश नहीं किए गए.


उन्होंने कहा कि गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा कि विधेयक पारदर्शिता लाने और विदेशी योगदान का लोगों द्वारा दुरुपयोग रोकने के लिए है.


उन्होंने सवाल उठाया, ‘लेकिन चुनावी बॉन्ड के तहत (विदेश से भी) मिले छह हजार करोड़ रुपये का क्या जिसे लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है या फिर पीएम केयर्स फंड के तहत मिले 9,600 करोड़ का क्या, जिसमें विदेशों से भी फंड आ रहा है, लेकिन एफसीआरए के तहत छूट प्राप्त है.’


उन्होंने आगे कहा कि जहां तक प्रशासनिक खर्च की बात है, उसमें केवल 1,803 संगठनों ने प्रशासनिक व्यय पर प्राप्त योगदान का 20 प्रतिशत से अधिक खर्च करने की सूचना दी.


सुदूर इलाकों में काम करने वाले एनजीओ को होगी परेशानी


भारतीय स्वैच्छिक विकास संगठनों के एक सर्वोच्च निकाय वानी (वॉलंटरी एक्शन नेटवर्क इंडिया) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हर्ष जेटली ने कहा कि सुदूर इलाकों में काम करने वाले नागरिक समाज संगठनों को सरकार के इस कदम से नुकसान होगा.


उन्होंने कहा, ‘दूर-दूर के कई गैर-सरकारी संगठन किसी भी विदेशी संसाधन तक नहीं पहुंच सकते. इसलिए बड़े और छोटे संगठन फंडिंग और ग्रोथ को सुनिश्चित करने के लिए मिलकर काम करते हैं, अब जिस पर असर होगा.’


उन्होंने कहा कि बाढ़ और हाल में जारी महामारी जैसे संकट के समय में एनजीओ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.


उन्होंने आरोप लगाया, ‘स्थानीय संगठन बाढ़ के समय में नागरिक प्रशासन के साथ मिलकर काम करते हैं. उन्होंने हाल ही में प्रवासी श्रमिकों की मदद करने और कोविड-19 स्थिति से निपटने के लिए ऐसा किया. यहां तक कि प्रधानमंत्री और नीति आयोग ने गैर सरकारी संगठनों के काम की सराहना की, लेकिन अब इन एफसीआरए संशोधनों को बिना किसी परामर्श के लाया गया है.’


स्थानीय स्तर पर एनजीओ कार्यकर्ता चिंतित


इसका प्रभाव राज्यों में चल रहे छोटे गैर सरकारी संगठनों द्वारा सबसे अधिक महसूस किया जा रहा है. जमीनी कार्यकर्ता इस बात से चिंतित हो गए हैं कि एफसीआरए अधिनियम में बदलाव उन्हें उनकी आजीविका से वंचित करेगा.


झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में छोटे एनजीओ के साथ काम करने वाले लीड्स ट्रस्ट के संस्थापक और प्रबंध निदेशक एके सिंह ने कहा कि यह दुखद है कि यह विधेयक कोविड-19 के समय में आया है, जब सरकार और गैर-सरकारी संगठन एक साथ काम करने और लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं.


उन्होंने कहा, ‘हम एफसीआरए के घटनाक्रमों से दुखी हैं. मुझे लगातार फोन आ रहे हैं. इस क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं में घबराहट है.’


कारण बताते हुए उन्होंने कहा, ‘जिस प्रारूप में हम काम करते हैं वह यह है कि सभी संगठन धन जुटाने में समान रूप से सक्षम नहीं हैं. इसलिए बड़े संगठन धन जुटाते हैं और उन्हें आदिवासियों और समाज के अन्य पिछड़े और गैर-संगठित वर्गों के बीच काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों के पास भेजते हैं ताकि उन्हें विकास कार्यों से जोड़ा जा सके.’


कई दलित, आदिवासी, महिला कार्यकर्ताओं की नौकरी जा सकती है


उन्होंने कहा कि विधेयक में शामिल उप-अनुदान को स्वीकार न करने वाला प्रावधान सैकड़ों छोटे गैर सरकारी संगठनों और हजारों श्रमिकों को प्रभावित करेगा.


उन्होंने कहा, ‘इससे अकेले झारखंड में 5,000-7,000 श्रमिक बेरोजगार होंगे- उनमें से ज्यादातर दलित, आदिवासी या महिलाएं हैं. कोविड-19 के समय में यह सबसे अधिक हाशिये के वर्गों पर असर करेगा.’


विधेयक के पारित होने को एक पीड़ादायक और क्रूर कार्य करार देते हुए एके सिंह ने कहा कि धर्मांतरण जैसे मुद्दों को सीधे तौर पर लक्षित करने के बजाय यह विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों पर काम करने वाले संगठनों को निशाना बना रहा है.


उन्होंने चेतावनी दी, ‘हम विस्तार के लिए कार्यक्रमों की पहचान करने में सरकारों की मदद करते हैं. जैसे कि सरकार की मदद से 60 लाख रुपये की हमारी एक परियोजना को 9 करोड़ रुपये की सामुदायिक परियोजना में बदल दिया गया. लेकिन अगर फंड नहीं आता है तो हमारे जैसे कई संगठन जनता की आजीविका में सुधार के लिए काम नहीं कर पाएंगे.’


विधेयक से महिलाओं के आत्मनिर्भर अभियान को धक्का लगा


मध्य प्रदेश स्थित कॉन्सेप्ट सोसाइटी की निदेशक हेमल कामत ने कहा कि उनका संगठन आदिवासियों और दलित महिलाओं के साथ 15 वर्षों से काम कर रहा है, लेकिन अब विधेयक ने एक खतरनाक स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें उनका अस्तित्व दांव पर है.


कामत ने कहा कि विडंबना यह है कि एक तरफ हम कह रहे हैं कि महिलाओं को संगठनों की स्थापना के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए और कई महिलाओं ने भी ऐसी इकाइयां शुरू की हैं लेकिन दूसरी तरफ इस संशोधन ने विरोधाभासी कानून बनाया है और महिलाओं की आत्मनिर्भरता को ठेस पहुंचाया है.


उन्होंने कहा कि कृषि, मिट्टी और जल संरक्षण और जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के लिए लगभग 2,000 संगठन काम कर रहे हैं जो सरकार की नीतियों को अंतिम व्यक्ति तक ले जाते हैं. इन संगठनों में बड़ी संख्या में लोग कम वेतन पर काम करते हैं, लेकिन वे लोगों के जीवन में एक बड़ा बदलाव करते हैं.


उन्होंने कहा, ‘अब नए संशोधनों के तहत प्रशासनिक व्यय पर 20 प्रतिशत की सीमा के साथ एनजीओ के लिए उनके लिए भुगतान करना मुश्किल हो जाएगा.’


नॉर्थ ईस्ट में काम करने वाली इम्पल्स नेटवर्क की संस्थापक और चेयरपर्सन हसीना खारभीह ने कहा, ‘मानवाधिकारों और मानव तस्करी से संबंधित कई प्रगतिशील पहल अंतरराष्ट्रीय फंडों द्वारा वित्त पोषित की जाती रही हैं.’


उन्होंने कहा, ‘नया संशोधन जमीन पर वास्तविक काम को चुनौतीपूर्ण बना देगा. छोटे संगठन अद्भुत काम कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय दानकर्ता विशेष रूप से राष्ट्रीय आपदाओं से निपटने में उनका समर्थन करते हैं.’


उन्होंने कहा कि संशोधन विकास क्षेत्र के लिए बिल्कुल भी अनुकूल नहीं थे क्योंकि वे ऐसे संगठनों और दूरदराज के क्षेत्रों में काम करने वालों को प्रभावित करेंगे.


पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा ने कहा कि भारत के राष्ट्रपति से विधेयक पर अपनी सहमति नहीं देने और इसे संसद में वापस करने के लिए एक सामूहिक अपील की जाएगी, ताकि इसे अधिक चर्चा के लिए एक प्रवर समिति को भेजा जा सके.


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