झुग्गियां तोड़ना समस्या है या समाधान? संपादक प्रेम श्रीवास्तव


दिल्ली में 140 किलोमीटर तक की रेल पटरियों के किनारे करीब 48,000 झुग्गियां हैं,  किनारे बसे लोगों की नींद जरूर हराम हो गई है। 14 तारीख को भले ही झुग्गियों में रहने वालों को चार हफ्ते का समय मिल गया, लेकिन उससे झुग्गी-बस्ती में रहने वालों की समस्या का समाधान होता नहीं दिख पा रहा है। रेलवे किनारे रहने वाले वे लोग (People living on the railway side) जो सालों से अपनी झुग्गियां डाल कर रह रहे है, वजीरपुर औद्योगिक नगर स्थित शहीद सुखदेव नगर रेलवे लाइन (Shaheed Sukhdev Nagar railway line located in Wazirpur Industrial Cityके बसे ऐसे लोगों से मिल कर उनका हाल जानने का प्रयास किया।



38 साल की मुन्नी आप मुझसे बात कीजिए।’’


मैंने कहा कि मैं आप लोगों की बात लिख रहा   हूं तो वो इंतजार करने लगी कि मैं कब उसकी बात लिखूंगा  ?


बस्ती में कुछ लोगों से बात करने के बाद रेलवे लाइन की पटरी पर गई जहां मुन्नी देवी मेरा इंतजार कर रही थी। मैं कुछ बोलती उससे पहले ही बोली कि ’’क्या आपको बात बता देने से हमारी झुग्गी टूटने से बच जायेगी?’’


मैंने उन्हें समझाया कि मैं आपकी कहानी बाहर लाना चाहता  हूं ताकि लोगों को पता चल सके कि आप कब से इस बस्ती में बसे हो। ये सुनते ही मुन्नी देवी अपनी बात बताने लगी, वह गांव पटना बिहार से दिल्ली आई थी। गांव में उनके पास खेती-बाड़ी कुछ नहीं है। एक मकान था जिसमें देवर और देवरानी रह रहे हैं। इन्होने अपना हिस्सा भी उन्हें दे दिया क्योंकि इतनी अधिक जमीन न थी कि दो परिवार एक साथ रह सकें।


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मुन्नी को दिल्ली रहते 20 साल से ज्यादा हो रहे हैं। वह अपने चार बच्चों (दो बेटा दो बेटी) को लेकर दिल्ली आई। उससे पहले उसके पति दिल्ली आकर रिक्शा चलाना शुरु कर दिये थे, लेकिन गांव में पैसा नहीं भेजते थे, बोलते थे कि पैसा बच नहीं पाता था। इसीलिए मुन्नी देवी बच्चों को लेकर दिल्ली आ गई। उन्होंने सोचा कि इतना बड़ा शहर है कहीं न कहीं उन्हें काम मिल ही जायेगा और जब दोनों पति-पत्नी दोनों मिल कर कमायेंगे तो बच्चों की जिन्दगी को बेहतर बना सकेंगे।


दिल्ली आने पर शुरुआत में मुन्नी ने फैक्टरी में 1500 रुपये तनख्वाह पर काम किया। फैक्टरी ज्यादा दूर नहीं होने के कारण घर खर्च चल जाता था।


वह बताती है कि पहले चार आने में तेल आ जाता था। सब कुछ सस्ता था इसलिए घर का खर्चा आसानी से निकल जाता था। अब तो सौ रुपये का तेल आता है, सब्जी दाल का खर्चा अलग से, अब तो घर चलाना मुश्किल हो जाता है। उसके बच्चे भी सरकारी स्कूल में पढ़ने जाने लगे लेकिन उनके पति दारू पीने के कारण घर खर्च के लिए पैसा नहीं देते थे। कुछ समय फैक्टरी में काम करने के बाद अशोक बिहार की कोठियों में काम करने लगी। लॉकडाउन से पहले वह 4 कोठियों में काम करती थी हर कोठी से उसे 3000 रुपया महीना मिलता था, इस तरह वह 12000 रुपया महीना कमा लेती थी।


दिल्ली आने से पहले उनके पति किराये के मकान में रहते थे, कोठी में काम करने के कारण उसकी हालत बेहतर होने लग गई थी। जिस झुग्गी में वह किराये पर रहते थे, बाद में उसी झुग्गी को एक लाख रुपये में खरीद लिया। अब उनके पास अपना कहने के लिए एक झुग्गी थी। एक लाख रुपये जुटाने में उनकी कोठी की मालकिन ने मदद की, साथ ही एक बेटी की शादी भी कोठी की मालकिन की मदद से की।


लॉकडाउन के बाद अब उसे केवल एक ही कोठी में काम मिला है जहां से 3000 रुपये ही मिलता है इतने कम पैसा में गुजारा चलाना मुश्किल हो रहा है, लेकिन अब उनके पति घर में पैसा देने लगे हैं हालांकि कोरोना के कारण उनकी भी कमाई उतनी नहीं हो पाती जितनी पहले हुआ करती थी।

मुन्नी कहती है कि ’’उनके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है एक तो कोरोना के कारण कोठियां का काम कम हो गया, दूसरे उनके एक बेटे का हाथ टूट गया है, वह पढ़ भी नहीं पा रहा है और ऐसे में हमारा घर तोड़ा जा रहा है, आखिर हम कहां जायेंगे, क्या हम इंसान नहीं है’’?


मुन्नी बताती है कि


’’इस शहर में आकर मेरे बच्चों ने पढ़ाई की, मेरी बेटी की शादी हुई, हमने एक झुग्गी भी खरीद ली। हमारे पास सारे कागज (राशन कार्ड,पहचान पत्र, आधार कार्ड, बिजली बिल) है इस शहर ने हमें बनाया है और हमने भी इस शहर को बनाया है, लेकिन फिर भी आज हम इस शहर के लिए बेगाने हो रहे हैं’’।


मुन्नी कोठी में काम करने के लिए पैदल ही चली जाती थी जिससे उसका समय और पैसा दोनों, बचता था। अब वह कहां जायेगी सोच नहीं पा रही है। जब से झुग्गियां टूटने की बात हो रही है, वह तब से ही परेशान हाल इधर-उधर भटक रही है। हर वक्त सोचती है काश कि कोई सर्वे होगा जिसमें हमे झुग्गी के बदले रहने के लिए मकान दिया जाये फिर झुग्गी तोड़ी जाएं।


38 साल की मंजू वजीरपुर की झुग्गी (slum of Wazirpur) में किराये पर रहती है। उसके पति ने दूसरी शादी कर उसे छोड़ दिया था। तभी पांच साल पहले बिहार समस्तीपुर से अपने दो बच्चों को लेकर दिल्ली आई थी। वह अशोक विहार में तीन कोठियों में काम करती है जिससे कि महीने का 6 हजार तक कमा लेती है, उसमें 1500 रुपया झुग्गी का किराया देती है। जब से झुग्गी टूटने के बारे में सुना है तब से परेशान है।


मंजू बताती है कि जब से यहां झुग्गी टूटने की खबर आई है आसपास की कॉलोनियों ने किराया बढ़ा दिया है। छोटे-छोटे कमरों के लिए चार से पांच हजार रुपये मांगते हैं। हम कोठियों में काम करने वाले कहां से इतना पैसा मकान के किराये के लिए दे सकते हैं’’?

मंजू ने बताया कि


’’झुग्गी तोड़ने के बाद अगर हम लोग कहीं ओर चले भी जाते हैं तो समस्या दूर नहीं होती। अभी कहा जा रहा है कि जिनकी अपनी झुग्गी है, उन्हे नरेला या बवाना में बसाया जाए, लेकिन परेशानी तो तब भी रहेगी। हमारे बच्चों का यहां के स्कूल में एडमिशन है वो कैसे इतने दूर से आकर पढ़ाई कर सकेंगे और अभी हम कोठियों में काम के लिए पैदल चले जाते हैं, दस मिनट में घर आ जाते हैं, लेकिन इतनी दूर चले जाने के बाद हम कैसे आ पायेंगे और कितनी रात को अपने घर पहुंच कर वहां रोटी पानी का काम करना पड़ेगा। हम तो बेहाल होकर थक जाया करेंगे। मेरा बेटा अभी 12 साल का है, मैं उसे झुग्गी में अकेले छोड़ कर काम के लिए चली जाती हूं। यहां सभी पर पूरा विश्वास है। नई जगह जाने पर क्या ये विश्वास बन पायेगा? क्या हम अपने छोटे-छोटे बच्चों को ऐसे छोड़ दूर काम पर जा सकेंगे? बहुत लोग कह रहे है कि किरायेदारों को कोई परेशानी नहीं है वो तो जब मर्जी घर खाली कर कहीं ओर जा सकते हैं, लेकिन कहीं और जाने पर चार गुना किराया देना पड़ेगा ।अभी तो 1500 रुपये देते हैं कहीं और के लिए पांच हजार मकान का किराया कैसे दे पायेंगे जब हम महीने के 6000 रुपये ही कमा रहे हैं।


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