प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बातें बनाने के बजाय समझते कि आंदोलन तो होते ही सत्ताओं की निरंकुशता पर लगाम लगाने के लिए हैं और उन्हें ख़त्म करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि ख़ुद पर उनका अंकुश हमेशा महसूस किया जाता रहे.
देश ने कई मुश्किल संघर्षों के रास्ते आजादी पाई, बहुमत पर आधारित लोकतंत्र को शासन प्रणाली बनाया और इसकी गारंटी के लिए बाकायदा एक संविधान अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया तो, इतिहास साक्षी है, कई देसी शक्तियों को उसकी यह कवायद कतई रास नहीं आई.
वे उसके संविधान और लोकतंत्र दोनों की खिल्ली उड़ाने पर उतर आईं. कभी वे कहतीं : मढ़ो दमामो जात नहिं, सौ चूहों के चाम यानी सौ चूहे मिलकर भी नगाड़ा मढ़ने भर को चमड़ा नहीं जुटा सकते और कभी यह कि शेर यानी शासक तो जंगल में अकेला ही होता है.
उनका आशय यह होता था कि देश में बहुमत के शासन की बेल का मढे़ चढ़ना बहुत मुश्किल है क्योंकि इसमें ज्यादा जोगी मठ उजाड़ और साझे की सुइयों के भी ‘सांगठ’ से चलने जैसी कहावतें सार्थक होती रही है.
गत सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद के प्रस्ताव पर राज्यसभा में हुई चर्चा का जवाब देते हुए राजधानी की सीमाओं पर किसानों के आंदोलन के सिलसिले में, जिसे वे और उनके समर्थक पहले दिन से ही अवमानित व लांछित करते आ रहे हैं, आंदोलनों की परंपरा और साफ-साफ कहें तो लोकतंत्र का ही मजाक उड़ाने लगे, तो ये पुरानी बातें सहज ही याद हो आईं.
इस कारण और कि उन दिनों लोकतंत्र और उसके मूल्यों को लेकर असहज अनुभव कर रही शक्तियों में उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का परिवार भी शामिल था, प्रधानमंत्री इन दिनों जिसके सबसे बड़े वारिस बने हुए हैं.
सवाल मौजूं है कि क्या यह परिवार अपनी राजनीतिक फ्रंट भारतीय जनता पार्टी में कथित पीढ़ी अंतरण के बाद भी लोकतंत्र को लेकर सहज नहीं हो पाया, न ही उसे दिशादर्शक मान पाया है और उसके स्वयंसेवकों द्वारा लोकतंत्र सुनिश्चित करने वाले संविधान की जो शपथ ली जाती है, वह भी सत्ताप्राप्ति की सुविधा के लिए किया जाने वाला कर्मकांड भर है?
ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री आंदोलनकारियों के लिए ‘आंदोलनजीवी’ जैसा अपमानजनक शब्द गढ़ते हुए सारा आगा-पीछा क्यों भूल जाते?
यह क्यों जताने लगते कि एकमात्र उन्हीं का विपक्ष इतना ‘नालायक’ है कि उसने एक के बाद एक आंदोलनों की मार्फत उनकी नाक में दम कर डाला है?
इससे भी बड़ी बात यह कि इस सिलसिले में कभी खुद को और कभी अपनी पार्टी को ही क्यों ‘काटने’ लगते? यूं देश में आंदोलन कब नहीं हुए और कब उन्होंने सत्ता या व्यवस्था परिवर्तन में भूमिका नहीं निभाई?
सच्चाई तो यह है कि देश की आजादी भी आंदोलनों की ही देन है. हम आंदोलन नहीं करते, अंग्रेजों का हुक्का ही भरते रहते या अंग्रेज ‘सविनय अवज्ञा’ और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ जैसे आंदोलन छेड़ने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को ‘आंदोलनजीवी’ कहकर उनका मजाक उड़ाते रहते, तो क्या आज हम आजाद होते?
इस सवाल को जाने भी दें, तो प्रधानमंत्री की अपनी भारतीय जनता पार्टी ने आजादी के बाद भी कुछ कम आंदोलन नहीं किए हैं. कहना चाहिए, वह दूसरी पार्टियों से आगे बढ़कर आंदोलनों में भागीदार बनती और कई बार परदे के पीछे से भी शह व समर्थन देती रही है.
1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए जिस आंदोलन से भयभीत होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उसके क्रूर दमन के लिए इमरजेंसी लगाई, उसमें भाजपा का पूर्वावतार जनसंघ भी भागीदार था.
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मनमोहन सरकारों के दौरान भाजपा ने भी महंगाई वगैरह को लेकर कई आंदोलन किए. 2011 में अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ, तो न सिर्फ उसने बल्कि समूचे संघ परिवार ने उसे हाथों हाथ लिया.
कई प्रेक्षक कहते हैं कि उसी आंदोलन ने 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उसे बहुमत दिलाने का मार्ग प्रशस्त किया. उस आंदोलन से निकले कई नेता आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री हैं और वे उनको या अन्ना हजारे को आंदोलनजीवी नहीं करार देते.
याद कीजिए, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद किस तरह अपने राम मंदिर आंदोलन को, लालकृष्ण आडवाणी जिसके सबसे बड़े नायक हुआ करते थे, 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से भी बड़ा बताती रही हैं.
यकीनन, उनका यह बताना थोथे दावे से ज्यादा कुछ नहीं, लेकिन अब आंदोलनों के प्रति प्रधानमंत्री की हिकारत की नजर के खुलासे के बाद वे यह दावा भी भला किस मुंह से कर पाएंगे?
यह कहना तो शायद उनके लिए संभव न हो कि प्रधानमंत्री को मौके और दस्तूर के अनुसार फुलफॉर्म बनाने, तुकबंदियां करने और बातें बनाने की आदत है. इसी आदत के तहत वे कोलकाता या सिलीगुड़ी में निर्माणाधीन फ्लाईओवर गिरने को ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ बताते हैं और अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में वैसा ही फ्लाईओवर गिरने पर दुख जताकर रह जाते हैं.
लेकिन बात इतनी-सी ही होती तो भी गनीमत होती. मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कड़े विरोधी थे. प्रधानमंत्री बन गए तो उनके लिए एफडीआई का मतलब फर्स्ट डेवलप इंडिया हो गया और अब आंदोलनों के संदर्भ में फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी यानी विदेशी विध्वंसक विचारधारा.
वे विदेशी पूंजी निवेश के लिए दुनिया भर में दौड़ लगाते हैं लेकिन किसान आंदोलन से नहीं निपट पाते तो देश के चारों ओर विचारधारा की ‘स्वदेशी’ दीवार की वकालत करने लग जाते हैं.
भूल जाते हैं कि किसानों के आंदोलन को दूसरे देशों से मिल रहे नैतिक व वैचारिक समर्थन को औपनिवेशिक मनोवैज्ञानिक मानसिकता के तहत विदेशी साजिश की थ्योरी में फिट करना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत भी अपनी सीमाओं के पार दुनिया में कहीं भी हो रहे जायज जन संघर्षों का मुखर समर्थन करता रहा है.
उसकी इसी परंपरा को अभिव्यक्त करते हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी एक रचना में कहा है: भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है, एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है. जहां कहीं एकता अखंडित, जहां प्रेम का स्वर है, देश-देश में वहां खड़ा भारत जीवित भास्वर है! उठे जहां भी घोष शांति का, भारत स्वर तेरा है, धर्म-दीप हो जिसके भी कर में, वह नर तेरा है. तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने जाता है, किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है.
प्रसंगवश, पिछले दिनों कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो की इस आंदोलन संबंधी टिप्पणी पर मोदी सरकार ने उनके हाई कमिश्नर को बुलाकर विरोध जताया तो ट्रूडो ने अपने कहे का औचित्य यह कहकर सिद्ध किया था कि कनाडा दुनिया भर में मानवाधिकार व नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के प्रति सजग रहता है.
भारत ने भी अक्सर दुनिया भर में होने वाले मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के हनन पर अपनी आवाज़ उठाई है. लेकिन इससे कोई सबक न लेकर प्रधानमंत्री अब भी वैयक्तिक टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं तक में भी साजिश सूंघ रहे हैं.
उनका यह सूंघना एक साथ हंसने और गाल फुलाने की कोशिश करने जैसा है, जिसकी हिमायत नहीं की जा सकती. यह कैसे हो सकता है कि प्रधानमंत्री के तौर पर उनका अमेरिका जाकर ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’ का नारा लगवाना अमेरिकी संप्रभुता का उल्लंघन न हो, लेकिन भारत के किसानों के समर्थन में देश के बाहर कुछ ट्वीट कर दिए जाएं, तो वे फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी का अंग हो जाएं?
क्या महात्मा गांधी से प्रभावित होकर मार्टिन लूथर किंग भारत की डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी का शिकार हुए थे?
काश, किसान आंदोलन से हलकान प्रधानमंत्री बातें बनाने के बजाय समझते कि आंदोलन तो होते ही सत्ताओं की निरंकुशता पर लगाम लगाने के लिए हैं और उन्हें खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि खुद पर उनका अंकुश हमेशा महसूस करते रहें. क्योंकि वे सशक्त लोकतंत्र की पहचान होते हैं.