वह दौर जिसने देश व प्रदेश की राजनीति का मिजाज बदल दिया हिंदुत्व सियासी ताकत की पहचान बना तो अस्थिरता भी बनी रही। अटल बिहारी वाजपेयी यूपी में दलितों पर अत्याचार की घटना को लेकर पदयात्रा कर रहे थे। उनके मित्र अप्पा घटाटे ने पूछा-ये पदयात्रा कब तक चलेगी? जवाब मिला- जब तक पद नहीं मिलता, यात्रा चलती रहेगी।सियासी समीकरणों में बदलाव के लिहाज से 1991 भी 1989-90 की तरह अहम पड़ाव रहा। यहीं से आज की हिंदुत्व केंद्रित राजनीति का सूत्रपात माना जा सकता है, जिसने देश व प्रदेश की राजनीति का मिजाज बदल दिया। राजनीतिक व सामाजिक परिवर्तन के लिहाज से 1991 की अहमियत को देखा जाए तो इसी दौर ने कल्याण सिंह के रूप में भाजपा को प्रदेश में हिंदुत्ववादी एवं पिछड़ी जातियों को जोड़ने वाला नेता दिया।
बहरहाल वर्ष 1989 के चुनाव के बाद अयोध्या को लेकर शुरू हुई मंदिर बनाम मंडल की लड़ाई में उन वीपी सिंह को कोई लाभ नहीं मिला, जिन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर पिछड़ों का सर्वमान्य नेता बनना चाहा। प्रदेश में इसका सारा लाभ मुलायम सिंह उठा ले गए। चुनाव हुआ तो मंडल और कमंडल के मुद्दे पर, लेकिन इस लड़ाई से केंद्र में कांग्रेस की वापसी हो गई।
हिंदू बनाम मुस्लिम में बंटे राजनीतिक समीकरणों से भाजपा ने केंद्र में मुख्य विपक्षी दल का रुतबा हासिल कर लिया। तो वहीं प्रदेश में भाजपा ने पहली बार अपने दम पर बहुमत की सरकार बना ली। सियासत में बदलाव के नजरिए से वर्ष 1991 क्यों अहम है, इसे समझने के लिए उन स्थितियों और कारणों पर नजर डालना जरूरी है, जिनकी वजह से लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधानसभा का मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा।अटल का खुलासा और बिखर गया जनता दल
अयोध्या में हिंदू संगठनों ने हर हाल में कारसेवा करने का एलान कर रखा था। वहीं दूसरी ओर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे, जो किसी भी सूरत में कारसेवा नहीं होने देना चाहते थे। इस सबने पूरे देश में माहौल गरम कर रखा था। कारसेवा में शामिल होने के लिए सोमनाथ से रवाना हुए लालकृष्ण आडवाणी के रथ को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समस्तीपुर में रोक लिया। आडवाणी की गिरफ्तारी हो गई।
अटल बिहारी वाजपेयी ने 26 अक्तूबर 1990 को यह खुलासा कर हड़कंप मचा दिया कि, ‘प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने रथयात्रा के अयोध्या पहुंचने में कोई व्यवधान नहीं डालने का आश्वासन दिया था। उन्होंने अपना वादा तोड़ा है।’ इस खुलासे ने जनता दल में चल रही कलह और तेज कर दी। एक गुट वीपी सिंह से इस्तीफा मांगने लगा।
मौके की ताक में बैठी कांग्रेस ने वीपी के अलावा किसी को भी प्रधानमंत्री बनाने पर बिना शर्त समर्थन देने की पेशकश कर दी। आखिर जनता दल टूट गया। चंद्रशेखर, देवीलाल, सत्यप्रकाश मालवीय, राजमंगल पांडेय ने जनता दल (एस) नाम से एक नई पार्टी बना ली।इसी में मुलायम सिंह यादव भी थे। वीपी सिंह बतौर प्रधानमंत्री एक साल भी नहीं पूरा कर पाए। उनकी जगह कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस से समर्थन लेकर सरकार चलाई। कांग्रेस के लगातार दबाव के चलते मार्च 1991 में चंद्रशेखर ने त्यागपत्र दे दिया। वहीं अप्रैल 1991 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी त्यागपत्र सौंप दिया।
मुलायम ने रखी एम-वाई फैक्टर की बुनियाद
वीपी सिंह से रिश्ते खराब होने के बाद मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश की आबादी में लगभग 19 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले मुस्लिमों के साथ ही प्रदेश की जनसंख्या में लगभग 54 प्रतिशत (सामाजिक न्याय समिति की 2001 की रिपोर्ट के अनुसार) की हिस्सेदारी रखने वाले पिछड़ों में 20 प्रतिशत की भागीदारी वाले यादव बिरादरी पर नजर गड़ाते हुए राजनीतिक भविष्य की तलाश शुरू कर दी।
अयोध्या में कारसेवा को लेकर अपनी सरकार की सख्ती, कारसेवकों पर गोली चलवाने के कारण मुलायम के नाम के आगे ‘मुल्ला’ जैसे शब्द जुड़ चुके थे। मुलायम ने इसे ही अपनी राजनीतिक ताकत बनाने की ठानी। उन्होंने यादव-मुस्लिम समीकरण पर काम करते हुए भाजपा का जबर्दस्त विरोध करने की रणनीति अपनाई। मुलायम चुनाव में तो बहुत सफल नहीं हो पाए, लेकिन मुस्लिम वोट कांग्रेस से खिसक गया।राजीव गांधी की हत्या ने जोड़ दिया काला अध्याय
मई-जून के दरमियान 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए। लखनऊ में मुलायम सिंह के घर के सामने विस्फोट हुआ। मुलायम के निर्वाचन क्षेत्र जसवंतनगर में भी हिंसा हुई। वहीं चुनावी दौरे के दौरान 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपैरम्बदूर में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या ने देश के चुनावी व राजनीतिक इतिहास में एक काला अध्याय जोड़ दिया।
कांशीराम और मुलायम की दोस्ती की शुरुआत
भले ही मुलायम व कांशीराम की दोस्ती ने सपा और बसपा के गठबंधन के रूप में 1993 में आकार लिया हो, लेकिन इसके बीज 1991 में ही बोए जा चुके थे। अयोध्या पर मुलायम सिंह के रुख का कांशीराम ने समर्थन किया। जनता दल में टूट के बाद सजपा बनाकर चंद्रशेखर के साथ सियासी अखाड़े में ताल ठोंकने उतरे मुलायम ने कांशीराम से भी बातचीत कर साथ लाने का प्रयास किया। पर, बात नहीं बन पाई।
उदारीकरण का दौर: पर...मुद्दे में रहा सिर्फ मंडल-कमंडल
वर्ष 1991 का चुनाव इसलिए भी काफी महत्व रखता है, क्योंकि वह दौर आर्थिक उदारीकरण का भी था। पूरी दुनिया में आर्थिक नीतियों पर बहस चल रही थी। पर, आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े प्रदेश में चुनाव का मुख्य मुद्दा मंदिर बनाम मस्जिद बना हुआ था।राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषक प्रो. अंबिका प्रसाद तिवारी बताते हैं कि जातीय आरक्षण के कार्ड और उदारीकरण के जरिये लोगों को आर्थिक तरक्की का रास्ता तलाशने का सपना दिखाने पर जारी बहस के बीच 1991 के चुनावी नतीजे आए। उस समय विधानसभा की 425 सीटें थीं।
भाजपा ने 221 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। मुलायम सिंह की पार्टी 34 सीटों के साथ चौथे नंबर पर रही। तब वह जनता पार्टी में थे। केंद्र में कांग्रेस ने भले वापसी कर ली लेकिन प्रदेश में कुछ खास नहीं कर पाई। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने।
अगड़ी जातियों के वर्चस्व को भी तोड़ा इस दौर ने
इस दौर ने अगड़ी जातियों के वर्चस्व को भी तोड़ा। मुलायम हों, कल्याण हों या फिर मायावती तीनों ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकलकर लखनऊ पहुंचे। दिलचस्प यह भी है कि तीनों एक-दूसरे के घोर विरोधी भी रहे और समय-समय पर दोस्ती के रिश्तों में भी कदमताल करते दिखे। तीनों का उभार 1990-91 के दौर से ही शुरू हुआ। तीनों ही मुख्यमंत्री रहे। तीनों ही अपनी पार्टी के मुखिया रहे। यह बात अलग है कि 1991 में मुलायम व कल्याण स्थापित नेता बन चुके थे तो मायावती अपनी पहचान बना रही थीं।